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यदीं॑ ग॒णस्य॑ रश॒नामजी॑गः॒ शुचि॑रङ्क्ते॒ शुचि॑भि॒र्गोभि॑र॒ग्निः। आद्दक्षि॑णा युज्यते वाज॒यन्त्यु॑त्ता॒नामू॒र्ध्वो अ॑धयज्जु॒हूभिः॑ ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad īṁ gaṇasya raśanām ajīgaḥ śucir aṅkte śucibhir gobhir agniḥ | ād dakṣiṇā yujyate vājayanty uttānām ūrdhvo adhayaj juhūbhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। ई॒म्। ग॒णस्य॑। र॒श॒नाम्। अजी॑ग॒रिति॑। शुचिः॑। अङ्क्ते॒। शुचि॑ऽभिः। गोभिः॑। अ॒ग्निः। आत्। दक्षि॑णा। यु॒ज्य॒ते॒। वा॒ज॒ऽयन्ती॑। उ॒त्ता॒नाम्। ऊ॒र्ध्वः। अ॒ध॒य॒त्। ज॒हूभिः॑ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:1» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:12» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो! (यत्) जो (शुचिभिः) पवित्र (गोभिः) किरणों से (अग्निः) अग्नि के सदृश (गणस्य) समूह की (रशनाम्) डोरी को (अजीगः) अत्यन्त निगलता अर्थात् ग्रहण करता (आत्) और (शुचिः) पवित्र होता हुआ (ऊर्ध्वः) ऊपर को उठा (अङ्क्ते) प्रसिद्ध होता है, वह (दक्षिणा) दक्षिणा दिशा में (युज्यते) युक्त किया जाता है, जो विद्यायुक्त स्त्री (वाजयन्ती) प्राप्ति कराती हुई (उत्तानाम्) ऊपर जानेवाली सामग्री को निरन्तर ग्रहण करती है, वह (ईम्) प्राप्त हुए (जुहूभिः) पान करने के साधनों से पीने योग्य पदार्थ को (अधयत्) पान करती है ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो समुदाय के संतोष को उत्पन्न करते हैं, वे किरणों से सूर्य जैसे वैसे सर्वत्र यश से प्रकाशित होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या! यद्यः शुचिभिर्गोभिरग्निरिव गणस्य रशनामजीग आच्छुचिरूर्ध्वोऽङ्क्ते स दक्षिणा युज्यते या विदुषी वाजयन्त्युत्तानामजीगस्स ईं जुहूभिः पेयमधयत् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यः (ईम्) प्राप्तम् (गणस्य) समूहस्य (रशनाम्) रज्जुम् (अजीगः) भृशं गिरति (शुचिः) पवित्रः सन् (अङ्क्ते) प्रसिद्धो भवति (शुचिभिः) पवित्रैः (गोभिः) किरणैः (अग्निः) पावक इव (आत्) (दक्षिणा) दक्षिणस्यां दिशि (युज्यते) (वाजयन्ती) प्रापयन्ती (उत्तानाम्) ऊर्ध्वगामिनीम् (ऊर्ध्वः) (अधयत्) पिबति (जुहूभिः) पानसाधनैः ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये समुदायस्य सन्तोषं जनयन्ति ते किरणैः सूर्य इव सर्वत्र यशसा प्रकाशिता जायन्ते ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे समाजात संतोष निर्माण करतात ते सूर्य जसा किरणांंमुळे प्रकाशित होतो तसे यशाने कीर्तिमान होतात. ॥ ३ ॥